Friday, September 2, 2016

अकेली मैं


ख्यालों की 
अंगीठी पे
खदबदाते विचार
बटलोई से 
बाहर आने को आतुर
पानी का छीटा 
मार कर 
बार बार 
भीतर भेजती मैं

इसी उहापोह में 
बीतती जिंदगी
कभी जान ही 
न पाई
कहाँ है 
मन की ख़ुशी
भागती रही 
बावरी सी
कभी इधर
कभी उधर

आज समझ में आया
जब समय ही 
न रहा हाथ में
रेत की तरह 
फिसलता जा मिला
आकाश में

लेकिन 
अब पछताए 
क्या होत
जब चिड़िया न खेत

सूना आकाश
विलीन सूरज
घर जा चुके पंछी
खाली खाली सा मन

सब एक से ही 
दीख पड़ते है
तुम ही कहो
कहाँ खोजू तुम्हे
अपने सिवा

खुद के सिवा
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Sunday, August 28, 2016


मैं तुम्हे फिर मिलूंगा
कहाँ, कैसे, कब 
पता नहीं
शायद 
तुम्हारी कल्पनाओं में
तुम्हारी ही प्रेरणा बन
तुम्हारी कलम में 
मैं उतरूंगा
या तुम्हारी 
खूबसूरत डायरी पर
एक खामोश तहरीर की तरह
मैं तुम्हे देखता रहूँगा
मैं तुम्हे फिर मिलूंगा
कहाँ, कैसे, कब पता नहीं

चाँद की रौशनी बन
दूंगा एक रात
तारों की चादर बिछा
बैठ जाऊंगा तुम्हारे  पास
रात भर बैठ कर
बतियाते हुए
बिताएंगे रात
मैं तुम्हे फिर मिलूंगा
कब ,कहाँ ,कैसे
पता नहीं


बारिश की बूँद बन
चमकूँगा तुम्हारी पेशानी पे
एक शीतल एहसास बन
मैं तुमसे फिर मिलूंगा
कब कहाँ कैसे पता नहीं

मुझे इतना पता है
वक़्त के फासले चाहे
कहीं तक ले जाये
पर मैं हर जनम में
तुम्हारे साथ चलूँगा
तुम्हारी परछाई बन
भले ही जिस्म जल कर
खाक हो जाये
या मौत  बेरहमी से
मुझे ले जाये
तुम्हे फिर भी मिलूंगा
कब कहाँ कैसे पता नहीं

तुम्हारी यादों में
रोशन रहूँगा
तुम्हारे तनहा लम्हों में
आंसू बन
तुम्हारी आँख से गिरूँगा
मैं तुम्हे फिर मिलूंगा
कब कहा कैसे पता नहीं

आज भैया को बिछुड़े एक महीना हुआ