Thursday, April 21, 2016

औरते


आँख खुलते ही 
जुत जाती है बैल सी
धूप के साथ बुहार देती है
अपने सपने भी
मलती आँख के साथ 
चढ़ा देती है चूल्हे पे
चाय का बर्तन
सरपट दौड़ती सी 
बनाती है बेटे का टिफ़िन
साथ ही उसे तैयार 
करती जाती है
छूट ती बस के साथ
छोड़ आती है एक स्वास्
दो बजे तक के लिए
उबलते दूध के साथ
पढ़ती जाती है दुर्गा चालीसा
कहीं भी मोर्चे पे
नहीं हारती है
सास की चाय
पति का नाश्ता
देवर का टिफ़िन
हर जगह सिद्ध करती है 
खुद को
फिर भी शाम तक
भूखी रह जाती है
उड़ना चाहती है
लेकिन
उड़ नहीं सकती
आँगन में गौरैया को देख
खुश हो लेती है
सच में 
चक्की सी दिन रात पिसती
ये औरते
कमाल की होती है