Wednesday, January 13, 2016

बूढा पिता


बुढ़ाते पिता  
युवा होती बेटी
घटता पुरुषाथ
बढ़ता यौवन
अब सब कुछई
पहले सा नहीं रहा
अब बेटी के नन्हे प्रश्न
कहीं खो से गए है
बेटी अब हर बात 
पिता से नहीं बताती
नहीं रही वो 
मासूम सी मटरगश्ती
जब दोनों एक दुसरे के साथ 
खूब ऊधम मचाया करते थे
पिता अब टेलीविज़न पर 
अंतरंग दृश्यों को देख
चॅनेल बदलने की 
कोशिश करता है
बेटी के जीवन की किताब
जो रंगीन सपनो से भरी है
धीरे धीरे अपना 
आकार ले रही है
बेटी उड़ना चाहती है 
मुक्त गगन में
पिता उड़ने की कीमत जानता है
वक़्त के साथ 
काट दिए जाते है पंख
जूझना पड़ता है 
समाज की बेडियो में
पिता जानता है 
कोई अजनबी एक दिन
ले जायेगा उसकी बेटी को
हमेशा के लिए
फिर भी पिता मन ही मन
खुद को मजबूर पाता है
शायद नियति के आगे 
बेबस हो जाता है
बेटी अब भी नींद में 
सुनहरे स्वप्न देख 
मुस्कुराती है
बूढ़े पिता को 
बेटी की चिंता में
रात रात 
नींद नहीं आती है