Monday, September 29, 2014

पा लिया तो प्यार कैसा..

तुमने पूछा था...तुम मे क्या खोजती हैं चारूशीला
मैं तो यही कहूँगी दोस्त...
हम सब के भीतर हैं एक चारूशीला
जो सच्चे प्रेम की खातिर भटक रही हैं..
खोज रही हैं अपने प्रियतम मे वो सब
जो रूबरू हो तुम्हारे भीतर देख पाती हैं
हो सकता हैं..तुम उसके प्रेमी के मापडंडो पे खरे उतरते हो
लेकिन वो कह ना पा रही हो...
प्यास सबकी एक जैसी ही होती हैं..
लेकिन सबका मिलन हो ये ज़रूरी नही
मैं तो कहती हूँ प्यार मे मिलन नही
तड़पन होनी चाहिए...भटकन.....
जो हर समय अपने प्रेमी की याद दिलाती रहे..
पा लिया तो प्यार कैसा..
अब तुम नदी को ही देख लो..
कैसे किल्लोले भर कर भागती हैं सागर की ओर..
सागर भी चुंबक की तरह...
हर वक़्त इशारे करता हैं नदी को...
कहाँ से कान तक की यात्रा....
यहीं हैं प्रेम...सस्सी पुन्नू...लैला मजनू..
देखा हैं तुमने ..मिलकर भी नही मिल पाए..
और यही तड़पन हर जनम मे उन्हे मजबूर करती हैं..
मिलने के लिए...मिलने की आतूरता ही..प्रेम हैं..