Thursday, December 5, 2013

कहते हैं "पारा" टूट कर फिर एक हो जाता हैं..जैसे टूटा ही ना हो..



एक बार बचपन मे 
मैने भी 
घर से दुखी होकर 
खा लिया था पारा 
अपनी फिज़िक्स की 
लॅब से चुरा कर
सोचा मर जाएँगे.. 
किसी को ना पता चलेगा... 
दुनिया से दूर चले जाएँगे.. 
लेकिन वो मुआ 
पारा भी बेवफा निकला 
खा कर उसे .......
फिर भी मुझे
 कुछ ना हुआ.. 
तब से पारे से 
विश्वास सा उठ गया हैं... 
वो बचपन की 
बात सोच कर 
अब भी बहुत 
हँसी आती हैं.. 
आपकी पारे की बात 
पढ़ी तो... 
घूम गया वो 
पुराना मंज़र.
( कक्षा नौ की एक घटना )

गुस्सा


कुछ समझ 

नही आता
तुम्हारा
पल मे तोला
पल मे माशा
अच्छा लगता हैं
इतना गुस्सा ?????
वो भी उम्र के 

इस पड़ाव पे...
जब पता हैं
नही रह सकते
एक दूसरे के बिना...
आदत सी जो 

हो गई हैं...
हमे एक दूसरे की.....
मत किया करो... ऐसा
क्यूंकी
मुझे तुम्हारे रोष पे
रोष नही आता ......
हँसी आती हैं....
जान गई हूँ ना 

तुम्हे...
पूरा का पूरा
जान बूझ कर 

करते हो ना
तुम ऐसा...
बताओ ना....